Thursday 8 February 2018

अश्क ...





जा बरस जा मेरी आँखों से
पलकों से संभाला नहीं जाता
सदियों से है मेहमान रहा
तुझे और पाला नहीं जाता

इक दबी हुई सिसकी भी है
इक रुकी हुई हिचकी भी है
इनको अपने संग तू ले जा
मुझसे तो निकाला नहीं जाता

रोटी, सब्ज़ी, थोड़ा शरबत
ले जा, के मिटे तेरी ग़ुरबत
मुझको तो भूख नहीं लगती
मुँह में निवाला नहीं जाता

मुझको भी सफ़र तय करना है
इस कस्बे मैं नहीं मरना है
हर शक्स यहाँ पर काफ़िर है
कोई मधुशाला नहीं जाता

जा बरस जा मेरी आँखों से
पलकों से संभाला नहीं जाता
सदियों से है मेहमान रहा
तुझे और पाला नहीं जाता…
                           (अनुराग शौरी)






















3 comments:

  1. Nice Anurag! Letting go of pain is the way to bring colossal peace to our soul. Thanks!

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