रोज़ ही कटते रहते हैं
दरखतों
से
लहू नहीं रिसता
लकड़ी बन सजते रहते हैं
सड़कों
के किनारे, जंगल में
पहाड़ों
में, कभी आँगन में
खामोश,
हर चोट को सहते हैं
पतझड़ में, कभी फागुन में
कभी सुना नहीं इन पेड़ों को
रोते, चिल्लाते, बिलखते हुए
टहनियों
को नाचते झूमते देखा
देखा फूलों को खिलते हुए
अक्सर वो मुझसे कहती है
तू भी इक बरगद सा बन जा
ठंडी छाया, घना साया
इस बीहड़ में तू भी तन जा
शायद, इस बात से वाकिफ़ है…
पेड़ों
को दर्द नहीं होता
रोज़ ही कटते रहते हैं…
रोज़ ही कटते रहते हैं…
(अनुराग)
Amazingly written :)
ReplyDeleteThank you. I am glad that you liked my composition.
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