मोबाइल
कमसिन सुबह बहुत हसीन
थी
सूरज की आँखों में हल्की सी नींद
थी
वो जच
रहा था नये
पहनावे में
चंचल हवा
भी आई इत्र
के बहकावे में
बीवी और
बच्चे का सिर
सहलाते हुए
घर से
निकला वो मुस्कुराते
हुए
सड़कों पर गाड़ियों
का हुजूम था
हर शॅक्स
के सिर अजीब
सा जुनून था
पहिए घूमते
रहे, रास्ता कटता
गया
मंज़िल करीब आई,
फासला घटता गया
मगर वो
पहुँचा नहीं, कभी अपने
दफ़्तर
बस इक ढेर मलबे
का, टीन और
कनस्तर
वक़्त थम गया,
पल दो पल
के लिए
जो मुरझा गया, उस कंवल के लिए
क्या हुआ? किसीने पूछा चिल्लाते हुए
जवाब में
इक बुज़ुर्ग बोला,
झल्लाते हुए
ज़िंदगी की सवेर
को रात कर
रहा था
गाड़ी चलाते वक़्त
…
इक बेवकूफ…
मोबाइल पे बात
कर रहा था…
(अनुराग शौरी)